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Tuesday, 3 April 2018

7. वो लम्हा!!!


वो लम्हा!!!




Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

वहाँ कदम रखते ही मुझे लगा कि मानो सब ओर से बहुत सारी उम्मीदें मुझे आवाज़ दे रही हैं!!

मैं हर तरफ मुड़ा, हर उम्मीद लगाती हुई आवाज़ की और देखा फिर उस उम्मीद को सफल करने का परिणाम सोचा और कई बार उम्मीदें मेरी औकात से बड़ी थीं तो कई बार मेरा अहम उन उम्मीदों से बड़ा निकलता, कई बार उन उम्मीदों की आवज़ मैं नहीं सुन पाया जो सिर्फ मेरे लिये थीं क्योंकि वहाँ शोर बहुत था और हम अक्सर कुछ चीज़ों को यूंही नज़रअंदाज़ भी कर देते हैं।


Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

मैंने कुछ आगे बढ़ा ही था कि कुछ आंखें जिनमे असंख्य सपने जो पूरा होना चाहते हैं और कर रहे हैं कुछ जद्दोज़हद शायद खुद को आँखों के पिंज़रे से बाहर निकालने की और आँख एक माँ की तरह रोक रही है सपनों को क्योंकि वो शायद बस इतना चाहती है की जब तक उसके सामने ऐसा रास्ता नहीं आ जाता जहाँ सपने पूरे होने के लिये आगे बढ़ सकें वह उन्हें खुद से दूर नहीं होने देगी। वे आंखें जो सपने पूरा करना चाहती हैं वे या तो भुखमरी की शिकार थीं या हुनरमंद कलाकार या दोनों ही, जो चाहती थीं कि सपने मुकम्मल हों तो फिर उनके आगे पेट भरने की समस्या नहीं आए।

वहीं थोड़ी आगे हिम्मत कुछ करतब कर रही थी। नीचे जला देने वाली आग और ऊपर वो हवा जिसमें जलते ही हिम्मत की राख उड़ जायेगी और फैला देगी चारों ओर ऐसी ही हिम्मत वहाँ घूमते मुझ जैसे कुछ लोगों में। सिर्फ यही नहीं एक हिम्मत थी जिसे लोगों ने विज्ञान का नाम दे दिया था पर शायद उनकी जान जिसे वे दो/चार पहियों पे लिये गोल-गोल घुमाये जा रहे थे वो विज्ञान से ज़्यादा हिम्मत का समर्थन कर रही थी।

कुछ हाथ भी मैंने देखे जो शान-ए-खुद्दारी से एक छल्ले में ज़रा सी मोहब्बत फूंक रहे थे जिससे बने कुछ बुलबुले हंसते-मुस्कुराते हुए यहाँ-वहाँ घूम रहे थे।

हाथी और ऊंट की सवारी करता हुआ बचपन खिलखिला रहा था क्योंकि उसके पीछे बैठी थी एक ज़िम्मेदारी जिसे पिताजी, बाबूजी, पापाजी या आप DAD कह सकते हैं और उस ज़िम्मेदारी ने बचपन का पूरा डर खाक में मिला दिया था।


Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

चूंकि मुझे ऐसी जगह ज़्यादा देर रहना पसंद नहीं है जहाँ जन-समूह की तादाद बिना किसी कारण बढ़ी हुई हो तो मैं चुपचाप उस मेले के आखिरी और पसंदीदा पड़ाव यानी कि झूलों के पास आया और सबसे ऊंचे चक्के (GIANT WHEEL) में बैठ गया और जब ऊंचाई पर पहुंच कर नीचे देखा तो पलभर की अनुभूति कुछ यूं थी कि उम्मीदें, सपने, भूख, कला, हिम्मत, विज्ञान, खुद्दारी, मोहब्बत, हंसना-मुस्कुराना, खिलखिलाना, यहाँ तक कि ज़िम्मेदारी भी नीचे छूट चुकी थी और मेरे साथ सिर्फ मैं था एक शाश्वत रूप में, वो मैं जो पल भर को मोक्ष पा गया था।

और फिर कभी मुझे इन एहसासों ने नहीं छुआ, शायद मैं कुछ गुरूर में था क्योंकि अरसे हुए मैंने मेले में कदम नहीं रखा पर अब जी करता है एक बार फिर उस लम्हे को समेटने का और अपने अंदर किसी कोने में छुपा कर रख लेने का !!!

क्या अब वो लम्हा आयेगा??
शायद ,
हाँ  
या  
ना!!!!


-प्रद्युम्न पालीवाल