Search This Blog

Monday, 3 December 2018

10. घर!!


"हमारा घर!!"


Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)










मुझे साहित्य में शुरू से ही दिलचस्पी रही है। कुछ टूटी फूटी कविताएं भी लिखता रहा हूँ और कभी उर्दू का शौक चढ़ता तो ग़ज़ल लिखने बैठ जाता। शौक तो उसे भी था, कई बार किताबें दी थीं उसे, खासकर दुष्यंत की साए में धूप। वह जो भी लिखती थी अंग्रेजी में लिखती थी। एक मैं था जो अंग्रेजी से तंग सिर्फ हिंदी समझता था,  शायद इसीलिए मैंने उसे समझा, उसके लिखे को नहीं!!

यूँ ही एक बार, सर्दियों की शाम थी, 6 बजे अँधेरा हो गया था, ठंडी हवा चल रही थी और किसी पार्क में हम दोनों चप्पलें उतार एक बेंच पर उकड़ूं  बैठे हुए थे!! 

तब पूछा था उसने मुझसे, "तुम्हारे सपनों का घर कैसा होगा??"

"बस कुछ किताबें चाहिए, प्रकृति के बीच जहाँ भूख मिटाने लायक खाना हो, बस फिर तो एक झोपड़ी भी मेरे सपनों का घर होगा", मैं बोला।

और अगले ही पल,मैंने पूछ लिया, "तुम्हारे सपनों का घर कैसा होगा??"

और उसने कहा, "पहाड़ों के बीच, एक लकड़ी का घर, जिसमें मैं उस व्यक्ति के साथ रहूँ जिसे मैं सबसे ज्यादा प्यार करूँ!!"

पता करने की कोशिश में उससे यही सुन पाया, "नहीं पता, भविष्य नहीं देखा मैंने पर कोई तो होगा।"

अब मेरे मन में दो बातें थीं, पर मैंने यह कह पाना उचित समझा, "मैंने भी तो ऐसे ही घर की बात की थी।"

और कुछ देर की चुप्पी के बाद, जब मन नहीं माना तो मैंने उससे पूछ लिया, "क्या वह व्यक्ति मैं हो सकता हूँ??"

तो बोली, "हाँ!! मैं एक और कमरा बनवा लूँगी, तुम आकर रह सकते हो।"

मुस्कुराते हुए हम पार्क से निकल कर टपरी पर गए, चाय पीने के बाद जब उसने कहा, "मैं जा रही हूँ।"

तो केदारनाथ सिंह जी की कविता याद करते हुए मैं बोल पड़ा, "जाओ।"

जबकि मैं अब समझ रहा था कि हाँ, 'जाना' हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया क्यूँ है!!
और निकल गए हम अपने अपने रास्ते।

Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)



कल वह फिर मिली थी मुझे, यूँ ही बातों के बीच मैंने पूछ लिया, "तुम्हारी चाह क्या है?"
"संसार..." जवाब आया।

हालाँकि, इस जवाब  के बारे में मैंने सोचा नहीं था, तो अपने आप को देखते हुए, मैं हंसते हुए बोला, "पर मेरे पास तो खुद का घर भी नहीं, संसार कहाँ से दूँगा, हाँ! अगर तुम मुझे ही संसार मान बैठी हो, तो मैं हाजिर हूँ!!"

वह मुस्कुराई और बोली, "किराए का मकान तो है।"

तो मैं फिर बोल बैठा, "मकान मालिक का है, जब चाहे लात मार के निकाल सकता है।"

एक ठहराव के बाद उसने कहा, "हम हमारा घर बनाएंगे ।"

मैं पूर्ण समर्पण के साथ कह रहा था "उसके लिए पहले 'तुम्हें' और 'मुझे' मिलकर होना पड़ेगा 'हम', कमाना पड़ेगा एक 'मकाँ' और मुद्दतों बाद उसे बना पाएंगे एक 'घर'।"

"हमारा घर" 
वह ख़ुश थी!! 
और मैं उसकी ख़ुशी में खोया हुआ!!

- प्रद्युम्न पालीवाल

Sunday, 18 November 2018

ऋषिकेश - २

ऋषिकेश - २



Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)



अक्सर गंगा के घाट पर आने वालों का ताँता लगा रहता है, कोई फ़र्क नहीं पड़ता घाट बनारस का है, इलाहाबाद (प्रयागराज) का या कलकत्ता का!!



फ़र्क पड़ता है जब घाट हो ऋषिकेश का, जहाँ गंगोत्री से निकली पतितपावनी त्रिपथगामिनी माँ भागीरथी पृथ्वी का स्पर्श करती है!


त्रिवेणी घाट, ऋषिकेश, जब घाट पर तुम्हारी नज़र चारों ओर दौड़ती है तो तुम देख पाते हो कि एक 45 वर्ष का व्यक्ति, सफ़ेद कपड़े पहने हुए, अर्घ दे रहा है और नमस्कार कर रहा है अस्त होते हुए सूर्य को!!

"क्या जाने वाले के साथ ऐसा किया जाना चाहिए??"


Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)


आवाज़ आती है,"परम्पराएँ तो मना नहीं करतीं!!" 

कौन बोला?, कोई दिखाई तो नहीं देता पर बात करने में क्या हर्ज़ है!!

तुम पूछते हो,"ये किस भावना से ये कार्य कर रहा है?"

"यहाँ आते तो सब आस्था और श्रद्धा की भावना से ही हैं, फिर रास्ते में कुछ याद आ जाए तो वो यहाँ मांग लेते हैं, पर आदमी भी क्या जीव है, जो आता है वो सुखः और समृद्धि माँगता है!"

"किसकी और कितनी सुखः और समृद्धि की चाह है आदमी को?"

" बहुत सही बात पर आये हो, क्योंकि यहाँ आये हर आदमी को अपने लिए सब कुछ नहीं चाहिए!!"

"फ़िर"

"किसी को फ़िक्र है बच्चों की , किसी को पुरखों की , तो कई पूरे खानदान की चिंता लिए बैठ जाते हैं यहाँ और आग्रह होता है कि इनके पास भी हँसी ख़ुशी के पल रहें!"

"तो क्या होता है वैसा, जैसा ये चाहते हैं??"

"भई, माँगने से हो रहा होता तो यहाँ भी क्यों आना पड़ता!"

"तो माँगने से क्या?"

"संतुष्टि, आत्मसंतुष्टि , ये आदमी जो भी कार्य आस्था, श्रद्धा, विश्वास की भावना से करता है, वो कार्य उसे ले जाता है आत्मसंतुष्टि की ओर, और यही वह भाव होता है जिसके बाद मनुष्य नहीं सोचता की अब किसी भी प्रकार की चिंता की आवश्यकता है!" 

"पर यदि सुखः नहीं आया??"

"कब तक?? सुखः, दुःख तो ऐसे हैं जैसे दिन और रात, कोन कहता है कि चाँद न निकलेगा, कब तक छाए रहेंगे बादल, क्या अमावस कभी ख़त्म नहीं होगी? क्या वो शीतलता नसीब ही नहीं होगी??"


Photo Credit :- Pradyumn Paliwal (प्रद्युम्न पालिवाल)


"ये लोग इतने विश्वास, श्रद्धा की भावना कैसे ले आते हैं अपने अंदर?" 

"भावना लाई नहीं जातीं, उतपन्न होती हैं!! कई बार जब कोई सहारा नहीं होता और प्रार्थना के समय कोई उम्मीद की किरण दिख जाए तो विश्वास उतपन्न होता है, और समय के साथ जब वह किरण एक पूर्ण सूर्य का रूप ले लेती है तब स्थापित हो जाती है उस विश्वास की, आस्था की भावना!" 

"कमाल है ना, मैं कब से यहाँ हूँ पर अभी तक इस भावना के बीज का सृजन नहीं हुआ मुझमें!!"

"बीज का सर्जन तो हो चुका है वर्षों पूर्व, और किसी ख़ूबसूरत हादसे से वो बीज अंकुरित भी हो चुका है, हाँ अभी विश्वास का पौधा है इक जो तुम्हें नज़र नहीं आ रहा परन्तु चिंता की बात नहीं है, जल्द ही मिलोगे उस विश्वास की भावना से!"

"अभी के लिए, एक आखिरी सवाल , तुम ये कैसे कह सकते हो की उस भाव का पौधा है??"

"तुम्हें पता नहीं है ये आवाज़ किसकी है??, 
 "नहीं!!"  
"पर तुम बात कर रहे हो ना!!, 
और बिना विश्वास किसी अज़नबी आवाज़ के साथ इतनी देर कोन बैठ पाता है??"

- प्रद्युम्न पालीवाल

ऋषिकेश - १

ऋषिकेश - १


Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)

कई जगहों पर अपनत्व महसूस होता है, ऋषिकेश, उत्तराखंड उन्हीं में से एक है!!
बावजूद 13 या 14 डिग्री तापमान के तुम गंगा किनारे बैठे रहो, सामने से मुँह पर पड़ती शीत लहर, लगातार बहता बर्फ़ सा गंगाजल, कई बार पूरे घाट पर अकेले और बढ़ता हुआ अँधेरा, और कभी उठ कर जाने लगो तो मानो वहाँ उपस्थित हर जीव-निर्जीव तुम्हारा कुर्ता खींचते हुए बोले - "कहाँ जा रहे हो?? बहुत कम अपने लोग हमारे पास आते हैं!"

Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)


तुम सोचोगे कि बोला जाए-"समय कम है, मेरी ट्रैन है" या कोई और नया बहाना।

पर सामने से आवाज़ आएगी,-"हाँ, बहुत से बहाने होंगे तुम्हारे पास, समय की कमी या गाड़ी का निकल जाना, पर क्या एक बहाना नहीं है रुकने का?" 


तुम फिर सोचोगे, पर एक और करुणापूर्ण भावुक आग्रह "कुछ देर ही सही, तुम भी तो बहुत कुछ कहना चाहते हो, दबाए बैठे हो सब, अपनी ही चार बातें कर लेना,और..."


और अचानक तुम बोल उठोगे "हाँ, ठीक है! मैं यहीं हूँ, कहीं नहीं जा रहा, आओ कुछ बात करते हैं!"


फिर हो जाएगी सुबह यूँ ही बैठे-बैठे, बात करते-करते, हर उस जीव-निर्जीव से जिस ने रोका है तुम्हें वहाँ!


और समझोगे तुम की अंतर क्या है, 

तेरा-मेरा और अपना में!

- प्रद्युम्न पालीवाल। 

Tuesday, 3 April 2018

7. वो लम्हा!!!


वो लम्हा!!!




Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

वहाँ कदम रखते ही मुझे लगा कि मानो सब ओर से बहुत सारी उम्मीदें मुझे आवाज़ दे रही हैं!!

मैं हर तरफ मुड़ा, हर उम्मीद लगाती हुई आवाज़ की और देखा फिर उस उम्मीद को सफल करने का परिणाम सोचा और कई बार उम्मीदें मेरी औकात से बड़ी थीं तो कई बार मेरा अहम उन उम्मीदों से बड़ा निकलता, कई बार उन उम्मीदों की आवज़ मैं नहीं सुन पाया जो सिर्फ मेरे लिये थीं क्योंकि वहाँ शोर बहुत था और हम अक्सर कुछ चीज़ों को यूंही नज़रअंदाज़ भी कर देते हैं।


Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

मैंने कुछ आगे बढ़ा ही था कि कुछ आंखें जिनमे असंख्य सपने जो पूरा होना चाहते हैं और कर रहे हैं कुछ जद्दोज़हद शायद खुद को आँखों के पिंज़रे से बाहर निकालने की और आँख एक माँ की तरह रोक रही है सपनों को क्योंकि वो शायद बस इतना चाहती है की जब तक उसके सामने ऐसा रास्ता नहीं आ जाता जहाँ सपने पूरे होने के लिये आगे बढ़ सकें वह उन्हें खुद से दूर नहीं होने देगी। वे आंखें जो सपने पूरा करना चाहती हैं वे या तो भुखमरी की शिकार थीं या हुनरमंद कलाकार या दोनों ही, जो चाहती थीं कि सपने मुकम्मल हों तो फिर उनके आगे पेट भरने की समस्या नहीं आए।

वहीं थोड़ी आगे हिम्मत कुछ करतब कर रही थी। नीचे जला देने वाली आग और ऊपर वो हवा जिसमें जलते ही हिम्मत की राख उड़ जायेगी और फैला देगी चारों ओर ऐसी ही हिम्मत वहाँ घूमते मुझ जैसे कुछ लोगों में। सिर्फ यही नहीं एक हिम्मत थी जिसे लोगों ने विज्ञान का नाम दे दिया था पर शायद उनकी जान जिसे वे दो/चार पहियों पे लिये गोल-गोल घुमाये जा रहे थे वो विज्ञान से ज़्यादा हिम्मत का समर्थन कर रही थी।

कुछ हाथ भी मैंने देखे जो शान-ए-खुद्दारी से एक छल्ले में ज़रा सी मोहब्बत फूंक रहे थे जिससे बने कुछ बुलबुले हंसते-मुस्कुराते हुए यहाँ-वहाँ घूम रहे थे।

हाथी और ऊंट की सवारी करता हुआ बचपन खिलखिला रहा था क्योंकि उसके पीछे बैठी थी एक ज़िम्मेदारी जिसे पिताजी, बाबूजी, पापाजी या आप DAD कह सकते हैं और उस ज़िम्मेदारी ने बचपन का पूरा डर खाक में मिला दिया था।


Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

चूंकि मुझे ऐसी जगह ज़्यादा देर रहना पसंद नहीं है जहाँ जन-समूह की तादाद बिना किसी कारण बढ़ी हुई हो तो मैं चुपचाप उस मेले के आखिरी और पसंदीदा पड़ाव यानी कि झूलों के पास आया और सबसे ऊंचे चक्के (GIANT WHEEL) में बैठ गया और जब ऊंचाई पर पहुंच कर नीचे देखा तो पलभर की अनुभूति कुछ यूं थी कि उम्मीदें, सपने, भूख, कला, हिम्मत, विज्ञान, खुद्दारी, मोहब्बत, हंसना-मुस्कुराना, खिलखिलाना, यहाँ तक कि ज़िम्मेदारी भी नीचे छूट चुकी थी और मेरे साथ सिर्फ मैं था एक शाश्वत रूप में, वो मैं जो पल भर को मोक्ष पा गया था।

और फिर कभी मुझे इन एहसासों ने नहीं छुआ, शायद मैं कुछ गुरूर में था क्योंकि अरसे हुए मैंने मेले में कदम नहीं रखा पर अब जी करता है एक बार फिर उस लम्हे को समेटने का और अपने अंदर किसी कोने में छुपा कर रख लेने का !!!

क्या अब वो लम्हा आयेगा??
शायद ,
हाँ  
या  
ना!!!!


-प्रद्युम्न पालीवाल

Monday, 19 March 2018

6. ऊँचाई


ऊँचाई



Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)


ऊँचाई, कई लोगों को देखा है मैंने जिन्हे ‘ACROPHOBIA’ है यानी ऊँचाई से डर लगता है पर फकत ये अर्थ नहीं है ऊँचाई का। जिस ऊँचाई का मैं आपसे ज़िक्र करना चाहता हूँ कम्बखत उस ऊँचाई से किसीको डर नहीं लगता परन्तु सबको अत्यंत प्रिय है, मुझसे आज तक ऐसे व्यक्तित्व का सामना नहीं हुआ जिसे वो तथकथित ऊँचाई नहीं चाहिये।

तथकथित ऊँचाई को सिर्फ मान सम्मान तक सीमित न रखा जाये अन्यथा ये ऊँचाई का अपमान होगा और इस दौर में कोई भी अपमानित शख़्स ऊँचाई का प्रतिनिधित्व करते हुए आप और मुझ पर मानहानि का मुकदमा ठोक सकता है!! दरअसल इस ऊँचाई से अभिप्राय दौलत, शौहरत और ओहदा जैसी सांसारिक उपलब्धियों से भी है!!

चुंकि हम मनुष्य हैं तो यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हम ऊँचाई से न डरें, पर कुछ चीज़ें ज़मीन पर अच्छी लगती हैं इस बात को भी नहीं भूलना चाहिये। साग़र आज़मी का एक शेर है,
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
 परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में॥

उङान भरना गलत नहीं है और न ही होगा पर ये भी सही तभी तक है जब तक वो उङान (आकाशीय अश्वमेघ की अद्वितीय नायिका, करोड़ों भारत-पुत्रियों के मन-मस्तिष्क में कल्पना-जडित, हौसले भरी उड़ान का स्वप्न जगाने वाली, गीता की कर्मशील पाठिका, हमारे युग को साहस की भारतीय व्याख्या देने वाली) कल्पना चावला की उङान हो या वो उङान जो (अपने शोध-क्षेत्र अनंत-आकाशकी प्रयोगशाला के लिए ईश्वर के सर्वाधिक प्रिय शोधार्थी) स्टीफ़्न ह्वाकिंग्स ने भरी और इन उङानों पर हमें गर्व होना चाहिए।

उङान या ऊँचाई कमाई जाती हैं जिसके लिये डॉ कुंवर बैचैन कह गये हैं कि,
उस ने फेंका मुझ पे पत्थर और मैं पानी की तरह,
 और ऊँचा और ऊँचा और ऊँचा हो गया॥

इस ऊँचाई को कई लोग बड़प्पन कह कर टाल देते हैं कई लोग गालियां भी देते हैं पर याद रखिये कि कहा जा चुका है कि माफ करने वाला बड़ा होता है।

और ये वो ज़माना है जहाँ कुकर्म किये बिना कोई उङान भरे तो वह खुद अचम्भित हो जाता है कि यह हुआ कैसे, और जो उसे जानने वाले लोग हैं वे भी यही चाहते हैं कि इतने गलत काम करता है ये उङान जरुर भरे बस दोनों उङानों में अंतर होता है।
मुझे व्यक्तिगत तौर पर किसीकी तरक्की से कोई दिक्कत नहीं है, सिर्फ मैं हि नहीं आप भी सभी के सामने यही कहते हैं और आप मानें या न मानें यह एक सफ़ेद झूठ है। जिस दिन यह झूठ सच हो जाएगा आप खुद-ब-खुद
ऊँचे हो जाएंगे।

मेरा विचार फ़कत यही है कि
सब जायज़ है शोहरत की ज़द को,
इस छोटी सोच की ऊँचाई पे आदम है!!

क्योंकि यदि सब जायज़ हो गया तो आप और मैं ज़िंदा रहैं ये भी जरूरी नहीं है, और आप खुद की नज़र में ऊँचे होना चाहिए वरन इस दुनिया ने तो सीता से भी अग्निपरीक्षा मांगने के बाद उसे बद्नाम कर दिया था
देखो,
मेहनत में चप्पल क्या, बदन तक घिस डाला,
यार हमारे तो घर की भी ऊँचाई कम है!!

पर मैं जब ज़मीर की ऊँचाई देखता हूँ तो मेरा कद बहुत ऊँचा दिखता है मुझे और यही होना भी चाहिए
 दौलत, शोहरत की ऊँचाई से कहीं आवश्यक है आपके ज़मीर की ऊँचाई॥

-प्रद्युम्न पालीवाल

Wednesday, 14 March 2018

5. फ़कीर!!


 फ़कीर


Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)


साहिर लुधियानवी का एक शेर है
,

" मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया,                        हर फिक्र को धुऐं में उङाता चला गया॥ "

 २०१६ (2016) सिंहस्थ ऐसे ही साधुओं का मिलन समारोह था, बाबा महाकाल की नगरी अवंतिका (उज्जैन) के हर  शख़्स के अंदर इस शेर को आप देख सकते थे, बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक का यही आलम था कि सब अपनी फिक्रों को उङा चुके थे, और जब नगरी में  एकत्रित हुए नागा साधुओं पर ध्यान जाता है तब शायद कोशिश की जा सकती है वैराग्य को समझने की।
दरअसल, फिक्र को धुऐं में उङाने को ही वैराग्य की प्रारम्भिक अवस्था कहा जा सकता है, जिसे आज की आम भाषा में मोह माया से दूर होना भी कहते हैं। 

Photo Credit :- Prafful Bhargava (प्रफुल्ल भार्गव)



भस्म में रमित सम्पूर्ण तन,
ध्यान में संग्रहित सब मन,
रुद्राक्ष, दंड, भस्म, भगवा,
नागाओं के आभुषण धन!!
 









कुछ ऐसी वेश-भूषा वाले नागा बाबा, आम आदमी और उसकी जैसा देश वैसा भेष वाली सोच से बिल्कुल परे हैं, वो जहाँ मिलेंगे इसी अवस्था में मिलेंगे, क्योंकि यह अवस्था उन्हें गहन तपस्या के बाद हासिल हुई है। ये आप उस तरीके से समझिये जब आपको दिन भर मेहनत करने के बाद मेहनताना मिले और आपको कोई यह बोले कि उस मेहनताने को वहीं छोङ दो, तो भले ही वह एक रुपया हो, यदि आप खुद्दार हैं तो अपनी मेहनत से कमाया एक रुपया भी लेकर ही आयेंगे।

Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

और खुद्दारी एक बहुत अहम बात है जो आपको नागा बाबाओं में मिलेगीये दिन-रात ध्यानहवनतपस्याकरने के बावजूद भी अपना पेट भरने के लिए किसी के आगे हाथ फैलाते नहीं मिलेंगेइन्हें खुद पर और उपरवाले पर उतना ही भरोसा है जितना मर्द सिनेमा में आमिताभ बच्चन को होता है और वो कहते हैं कि,
उपरवाला भूखा उठाता जरूर है, भूखा सुलाता नहीं”
और ये तो मैं भी मानता हूँ कि जिसका कोई नहीं उसका खुदा है। और इन बाबाओं का तो सिर्फ वही है क्योंकि शायद आपको नहीं पता हो नागा बनने की प्रक्रिया में एक पद पिंडदान का भी होता है, सही समझे आप !! बाबा खुद का पिंडदान करते हैं और ये आपके, मेरे और इस पूरी दुनिया के लिये म्रत हो जाते हैं।

Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)

हाँ और भी बहुत सारी परीक्षाएं होती है जैसे सर्वप्रथम उस व्यक्ति के बारे में एक एक जानकारी की जाती है, वह किस परिवार से है, पारिवारिक स्तिथी कैसी है, जिसमें सबसे बङा प्रश्न होता है कि वो बाबा क्यों बनना चाहता है, और वह इस लायक है या नहीं और इसमें सफल होने के बाद ब्रह्मचर्य की परिक्षा जहाँ ६(6) माह से १२(12) साल तक लग जाते हैं, और इसमें उत्तीर्ण होने के बाद बाबाओं को महापुरुष बनाया जाता है, जहाँ उनके पांच गुरु बनाये जाते हैं जिन्हें पंच पर्मेश्वर भी कहा जाता है। इसमें आखिरी परिक्षा होती है अंग भंग की जिसे सबसे विषम कहा गया है और उसके बाद एक व्यक्ति असल नागा बाबा बनता है।

मुझे नागा बाबा ही असली फ़कीर मालूम होते हैं, और शायद इतना सब कुछ जानने के बाद आप भी नागा बाबाओं को खुद्दार फ़कीर कहना शुरू कर दें!! मैं सोचता हूँ कि ये हर व्यक्तित्व कितनी ताकत रखता है, मेहनत, द्ढनिश्चयता, संकल्पनिष्ठता, एकाग्रता, ईमानदारी और न जाने कितनी ही खूबी ये अपने अंदर रखे हुए हैं, ऐसे प्रतिद्वंदिता के ज़माने में जहाँ आगे निकलने के लिये आदम किसी भी रिश्ते या व्यक्ति को खत्म करने में तनिक नहीं सोचता, अगर यह बाबा बनने वाले प्रतिभाशाली लोग इस ज़माने में शामिल हो गये तो आपका और हमारा क्या होगा ??

इस प्रश्न का आपका और मेरा जवाब नोमान शौक़ के इक शेर से लिखता हूँ कि,

“ फ़कीर लोग रहे अपने हाल में मस्त,
नहीं तो शहर का नक्शा बदल चुका होता॥

Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)


इन सभी प्रतिभा के धनियों को मेरा शत् शत् बार प्रणाम!!!!

‌‌‌‌  - प्रद्युम्न पालिवाल

 ‌‌‌‌


Monday, 12 March 2018

4. कलम का जादूगर!!

कलम का जादूगर





बिहार के मुज़्ज़फरपुर जिले के बेनिपुर गांव में रहा करते थे एक विशिष्ट शैलीकार जिन्हें "कलम का जादूगर" कहा जाता है। जन्म हुआ सन् १८९९ (1899) में और माता पिता का साया बचपन में ही सर से उठ गया। दसवीं के उपरांत सन् १९२० (1920) में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुङ गए। कई बार जेल भी गए। सन् १९६८ (1968) में उनका देहावसान हो गया।


ऐसा प्रतिभाशाली पत्रकार एवम साहित्यकार जिसकी रचनाएं १५ 
(15‌) वर्ष की उम्र से प्रकाशित होने लगीं। अनेक दैनिक, साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन करने वाले   “श्री रामव्रक्ष बेनीपुरी जी


Photo Credit :- Prafful Bhargava 

(प्रफुल्ल भार्गव)



यह लेख समर्पित है स्व. “श्री रामव्रक्ष बेनीपुरी जी को, और दरअसल उपर दिए गए चित्र को देख मुझे बेनीपुरी जी की एक कहानी याद आ गई जिसका नाम है बालगोबिन भगत

पूरी कहानी तो काफी लम्बी हो जाएगी सो मैं कुछ काम की बात बताना चाहुंगा। कहानी के मुख्य किरदार, भगत जी एक मस्त मौला, साठ साल से उपर के, खेतीबारी वाले बिल्कुल फक्कङ व्यक्ति जो ग्रहस्थ होते हुए भी एक साधू हैं और जिनकी दिनचर्या है संगीत!!
जिन्हें हर गांव वाला उनके गीतों और भजनों के कारण जानता था, कबीर को 'साहब' कहने वाला फकीर जो हर मौसम के अनुरूप गीत और सुबह शाम साहब के दोहे दोहराते थे!!

एक दिन अचानक भगत का बेटा मर जाता है, पर आश्चर्य की बात यह कि भगत उस दिन भी उसी मस्ती से भजन गा रहे हैं। उनकी पुत्रवधू, जिसके आंसू नहीं रुक रहे हैं, जिसे सारी मोहल्ले की औरतें शांत कराने की कोशिश कर रही हैं। उसे भगत बाबा खुशी मनाने को कह रहे हैं, उनका कहना है कि ये वक्त उत्साह का है, आत्मा का परमात्मा से मिलन हो रहा है!! और तब मैं समझा कि बाबा भगत दुख में भी खुशी मनाने वालों में से हैं।
और बाबा का देहावसान भी उनकी इच्छा स्वरूप ही हुआ, किसी को नहीं पता की यह कैसे हुआ बस एक दिन सुबह सुबह वो दोहे सुनाई नहीं पङे और जब लोगों ने जाकर देखा तो पता चला की भगत बाबा नहीं रहे!! मैं मानता हूँ वो जहाँ भी गये होंगे वहाँ रोते को हंसा देंगे।

लेखक बेनिपुरी जी की इस कहानी का यह संदेश हम सब तक पहुंचना जरूरी है कि -

"जो भी हो हमेशा एक से रहो और कठिन समय में खुश रहो और सब खुद-ब-खुद सही हो जाएगा, दरअसल इसी का नाम तो ज़िंदगी है!!"


-प्रद्युम्न पालीवाल  

यह कहानी आज भी आपको एन.सी.ई.आर.टी. की दसवीं की किताब पर मिल जाएगी यदि आप पूरी कहानी का पठन करना चाहें तो!! और एक लिंक उस कहानी के लिये यह है:-

बालगोबिन भगत