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Sunday, 18 November 2018

ऋषिकेश - २

ऋषिकेश - २



Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)



अक्सर गंगा के घाट पर आने वालों का ताँता लगा रहता है, कोई फ़र्क नहीं पड़ता घाट बनारस का है, इलाहाबाद (प्रयागराज) का या कलकत्ता का!!



फ़र्क पड़ता है जब घाट हो ऋषिकेश का, जहाँ गंगोत्री से निकली पतितपावनी त्रिपथगामिनी माँ भागीरथी पृथ्वी का स्पर्श करती है!


त्रिवेणी घाट, ऋषिकेश, जब घाट पर तुम्हारी नज़र चारों ओर दौड़ती है तो तुम देख पाते हो कि एक 45 वर्ष का व्यक्ति, सफ़ेद कपड़े पहने हुए, अर्घ दे रहा है और नमस्कार कर रहा है अस्त होते हुए सूर्य को!!

"क्या जाने वाले के साथ ऐसा किया जाना चाहिए??"


Photo Credit :- Pradyumn Paliwal 

(प्रद्युम्न पालिवाल)


आवाज़ आती है,"परम्पराएँ तो मना नहीं करतीं!!" 

कौन बोला?, कोई दिखाई तो नहीं देता पर बात करने में क्या हर्ज़ है!!

तुम पूछते हो,"ये किस भावना से ये कार्य कर रहा है?"

"यहाँ आते तो सब आस्था और श्रद्धा की भावना से ही हैं, फिर रास्ते में कुछ याद आ जाए तो वो यहाँ मांग लेते हैं, पर आदमी भी क्या जीव है, जो आता है वो सुखः और समृद्धि माँगता है!"

"किसकी और कितनी सुखः और समृद्धि की चाह है आदमी को?"

" बहुत सही बात पर आये हो, क्योंकि यहाँ आये हर आदमी को अपने लिए सब कुछ नहीं चाहिए!!"

"फ़िर"

"किसी को फ़िक्र है बच्चों की , किसी को पुरखों की , तो कई पूरे खानदान की चिंता लिए बैठ जाते हैं यहाँ और आग्रह होता है कि इनके पास भी हँसी ख़ुशी के पल रहें!"

"तो क्या होता है वैसा, जैसा ये चाहते हैं??"

"भई, माँगने से हो रहा होता तो यहाँ भी क्यों आना पड़ता!"

"तो माँगने से क्या?"

"संतुष्टि, आत्मसंतुष्टि , ये आदमी जो भी कार्य आस्था, श्रद्धा, विश्वास की भावना से करता है, वो कार्य उसे ले जाता है आत्मसंतुष्टि की ओर, और यही वह भाव होता है जिसके बाद मनुष्य नहीं सोचता की अब किसी भी प्रकार की चिंता की आवश्यकता है!" 

"पर यदि सुखः नहीं आया??"

"कब तक?? सुखः, दुःख तो ऐसे हैं जैसे दिन और रात, कोन कहता है कि चाँद न निकलेगा, कब तक छाए रहेंगे बादल, क्या अमावस कभी ख़त्म नहीं होगी? क्या वो शीतलता नसीब ही नहीं होगी??"


Photo Credit :- Pradyumn Paliwal (प्रद्युम्न पालिवाल)


"ये लोग इतने विश्वास, श्रद्धा की भावना कैसे ले आते हैं अपने अंदर?" 

"भावना लाई नहीं जातीं, उतपन्न होती हैं!! कई बार जब कोई सहारा नहीं होता और प्रार्थना के समय कोई उम्मीद की किरण दिख जाए तो विश्वास उतपन्न होता है, और समय के साथ जब वह किरण एक पूर्ण सूर्य का रूप ले लेती है तब स्थापित हो जाती है उस विश्वास की, आस्था की भावना!" 

"कमाल है ना, मैं कब से यहाँ हूँ पर अभी तक इस भावना के बीज का सृजन नहीं हुआ मुझमें!!"

"बीज का सर्जन तो हो चुका है वर्षों पूर्व, और किसी ख़ूबसूरत हादसे से वो बीज अंकुरित भी हो चुका है, हाँ अभी विश्वास का पौधा है इक जो तुम्हें नज़र नहीं आ रहा परन्तु चिंता की बात नहीं है, जल्द ही मिलोगे उस विश्वास की भावना से!"

"अभी के लिए, एक आखिरी सवाल , तुम ये कैसे कह सकते हो की उस भाव का पौधा है??"

"तुम्हें पता नहीं है ये आवाज़ किसकी है??, 
 "नहीं!!"  
"पर तुम बात कर रहे हो ना!!, 
और बिना विश्वास किसी अज़नबी आवाज़ के साथ इतनी देर कोन बैठ पाता है??"

- प्रद्युम्न पालीवाल

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