"हमारा घर!!"![]() |
Photo Credit :- Pradyumn Paliwal(प्रद्युम्न पालिवाल) |
मुझे साहित्य में शुरू से ही दिलचस्पी रही है। कुछ टूटी फूटी कविताएं भी लिखता रहा हूँ और कभी उर्दू का शौक चढ़ता तो ग़ज़ल लिखने बैठ जाता। शौक तो उसे भी था, कई बार किताबें दी थीं उसे, खासकर दुष्यंत की साए में धूप। वह जो भी लिखती थी अंग्रेजी में लिखती थी। एक मैं था जो अंग्रेजी से तंग सिर्फ हिंदी समझता था, शायद इसीलिए मैंने उसे समझा, उसके लिखे को नहीं!!
यूँ ही एक बार, सर्दियों की शाम थी, 6 बजे अँधेरा हो गया था, ठंडी हवा चल रही थी और किसी पार्क में हम दोनों चप्पलें उतार एक बेंच पर उकड़ूं बैठे हुए थे!!
तब पूछा था उसने मुझसे, "तुम्हारे सपनों का घर कैसा होगा??"
"बस कुछ किताबें चाहिए, प्रकृति के बीच जहाँ भूख मिटाने लायक खाना हो, बस फिर तो एक झोपड़ी भी मेरे सपनों का घर होगा", मैं बोला।
और अगले ही पल,मैंने पूछ लिया, "तुम्हारे सपनों का घर कैसा होगा??"
और उसने कहा, "पहाड़ों के बीच, एक लकड़ी का घर, जिसमें मैं उस व्यक्ति के साथ रहूँ जिसे मैं सबसे ज्यादा प्यार करूँ!!"
पता करने की कोशिश में उससे यही सुन पाया, "नहीं पता, भविष्य नहीं देखा मैंने पर कोई तो होगा।"
अब मेरे मन में दो बातें थीं, पर मैंने यह कह पाना उचित समझा, "मैंने भी तो ऐसे ही घर की बात की थी।"
और कुछ देर की चुप्पी के बाद, जब मन नहीं माना तो मैंने उससे पूछ लिया, "क्या वह व्यक्ति मैं हो सकता हूँ??"
तो बोली, "हाँ!! मैं एक और कमरा बनवा लूँगी, तुम आकर रह सकते हो।"
मुस्कुराते हुए हम पार्क से निकल कर टपरी पर गए, चाय पीने के बाद जब उसने कहा, "मैं जा रही हूँ।"
तो केदारनाथ सिंह जी की कविता याद करते हुए मैं बोल पड़ा, "जाओ।"
जबकि मैं अब समझ रहा था कि हाँ, 'जाना' हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया क्यूँ है!!
और निकल गए हम अपने अपने रास्ते।
और निकल गए हम अपने अपने रास्ते।
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Photo Credit :- Pradyumn Paliwal(प्रद्युम्न पालिवाल) |
कल वह फिर मिली थी मुझे, यूँ ही बातों के बीच मैंने पूछ लिया, "तुम्हारी चाह क्या है?"
"संसार..." जवाब आया।
"संसार..." जवाब आया।
हालाँकि, इस जवाब के बारे में मैंने सोचा नहीं था, तो अपने आप को देखते हुए, मैं हंसते हुए बोला, "पर मेरे पास तो खुद का घर भी नहीं, संसार कहाँ से दूँगा, हाँ! अगर तुम मुझे ही संसार मान बैठी हो, तो मैं हाजिर हूँ!!"
वह मुस्कुराई और बोली, "किराए का मकान तो है।"
तो मैं फिर बोल बैठा, "मकान मालिक का है, जब चाहे लात मार के निकाल सकता है।"
एक ठहराव के बाद उसने कहा, "हम हमारा घर बनाएंगे ।"
मैं पूर्ण समर्पण के साथ कह रहा था "उसके लिए पहले 'तुम्हें' और 'मुझे' मिलकर होना पड़ेगा 'हम', कमाना पड़ेगा एक 'मकाँ' और मुद्दतों बाद उसे बना पाएंगे एक 'घर'।"
"हमारा घर"
वह ख़ुश थी!!
और मैं उसकी ख़ुशी में खोया हुआ!!
- प्रद्युम्न पालीवाल
पालीवाल साहब कभी कभी आपकी कल्पना के लिये शब्द नही होते, लगता है बस यही लाजवाब है👌
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर!!!!
Deleteअतिसुन्दर😁👌👌
ReplyDeleteशुक्रिया!!!
Deleteवाह! बहुत सादगी से लिखा गया एक सुंदर लेख।
ReplyDelete🙏🙏 दिल को छू जाने वाला लेख
ReplyDelete🏚️🌴👌
ReplyDeleteBeautiful just beautiful it is.
ReplyDeleteMe pta nhi kyu lekin me wo words doond rha hu Jo mere is comment ko sbse achaa dikhaYe, ya yu khe me wo words doond rha hu Jo bta ske ki is lekh ne mujhe kis tarah or kha tak prabhavit Kia h.....nhi mil rhe!!
ReplyDeleteक्या बात हैं|👏👏👏
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